मंद पड़ती
साँसों की कगार पर
खड़ा सोचता हूँ...
जिन्दगी !
तू एक उलझी कविता है
दौड़ती है तू सिरे-सिरे में
लहू की तरह
जो बह रहा है कतरा–कतरा
मेरी धड़कनों के बीच ।
काँपती आवाज़ और हाँफती साँसें
ले जाती हैं वक्त के दामन में
जहाँ उम्मीद का सूरज पिघलने लगा है
खोती हुई अपनी लालिमा के साथ
जो आतुर है पहनने को अंधकार का जामा ।
बुझते हुए चिराग के तले
अपना वजूद खोती रौशनी
उनके साथ ही
बिखरती हैं तमाम यादें
आहिस्ता–आहिस्ता
उखड़ती उम्मीदों के बीच
जिन्दगी !
क्षणिकता के सच को
जानता हूं मैं
और इस सच के साथ ही
एक नई ऊर्जा भर कर खुद में
आज लेना चाहता हूं
एक वादा तुमसे
चाहे उजालों को अन्धेरे निगल जाएँ
अहसास धुमिल होने लग जाएँ
नब्ज शिथिल होने लग जाएं
मगर तू व्यक्त होती रहना
अविरल, अथक
कभी न खत्म होने वाली
दास्ताँ बनकर ।
बहना मेरे सिराओं में जैसे
नदी समा जाना चाहती है
सागर की उत्कट लहरों में
रहना मेरे साथ अशेष
लम्हों की प्रवाह की तरह
नये लिबास नये आभास में ।
बस इतना वादा कर कि तू
रहेगी हमेशा मेरे लफ़्ज़ों में
मेरी कविता बनकर।
- अमेरिकन हस्पिटल, दुबई
मँगलवार, २८ सेप्टेम्बर २०२१
सुवह ४:०० बजे
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