एक दिन स्वास्नी छोड्न नसक्ने श्रीमानहरु र एक दिन श्रीमान छोड्न नसक्ने श्रीमतीहरु, सँसारिक माया, मोह, स्वार्थ, तेरो मेरो भन्न, आफु आफुमै लड्न भिड्न तयार हामी जस्ताहरुको बसको कुरा रहेनछ नागा बाबा, नागा आमा बन्ने कुरा !!
(पुरा पढेर बुझेर मात्र कम्मेन्ट गर्न सबै सँग आग्रह छ ।)
नागा बाबाहरु देख्दा म पनि लाजले भुतुक्क हुन्थेँ । सोँच्दथे धर्मका नाम मा यो अती नै बिकृति भयो । यस्तो पनि हुन्छ ? पशुपतिनाथमा मात्र होइन नेपाल भर नागा बाबाहरुलाई प्रबेश निसेध गर्दै यो बिकृति हटाउन पशुपती क्षेत्र बिकास कोस र नेपालको सरकारी स्तर बाटै कडा कदम उठाउनुपर्ने माग राख्दै लेख्ने बोल्ने मै हुँँ । गत बर्ष सम्म
मैले नागा बाबाहरुको बिषयमा सधैं नकारात्मक टिप्पणी गर्दथेँ । पोहोर महाशिवरात्रीका बेला मेरो परम मित्र भुप नारायण घर्तिमगरले मेरा नागा बाबा बिरोधी स्टाटस र समाचार अनी बिचार देखे पछि नागा बाबाको बिषयमा अध्ययन गर्न सल्लाह दिंदै आफुलाई जानकारी भएका कुरा म सँग शेयर गर्नुभयो, म झसङ्गै भएँ । मैले मन मनै सोँचेँ कतै मैले गल्ती त गरिरहेको छैन ? त्यस पछि त्यस सम्बन्धमा अध्ययन शुरु गरेँ । पहिला नागा बाबाहरुको नाङ्गो पनले भुतुक्क हुने म अब भने मेरो अल्पज्ञान लाई देखेर लाजले भुतुक्क हुन थालेँ । नागा बाबाहरु प्रति मेरो श्रध्दा अध्ययन पछि आकाशियो । मलाई थाहा छ मैले यसो भन्दा यहाँ मलाई शाब्दिक आकर्मण हुन सक्छ म फेस गर्न तयार छु । म अहिले नागा बाबाहरुको कठोर त्याग, तपस्या र उनिहरुले धर्मका लागि गरेको बलिदान प्रति नतमस्तक मात्र छु ।
नागा बाबाहरुको नबुझेर अन्जान मा बिरोध गर्नेहरुलाई म यस बारेमा अध्ययन गर्न बिनम्र अनुरोध गर्दछु । अहिले त जे चाहियो गुगल गर्नुस भेट्न सकिन्छ । मेरो सल्लाह नेपालीमा नागा बाबा वा अङ्रेजीमा वा हिन्दी भाषामा गएर खोज्नुस तपाईंले सबै भेट्टाउनुहुनेछ । नागा बाबा हरुका बारेमा केही जानकारी र तस्बीरहरु मैले बिभिन्न मिडियाहरु बाट समेत लिएर तल प्रस्तुत गरेको छु ।
* नागा बाबा बन्न र नागा बाबा भन्न ६ बर्ष देखी १२ बर्ष सम्म त्याग तपस्या गर्नुपर्ने रहेछ ।
* नागा बाबा बन्न घर गृहस्ती, लोभ लालच सबकुरा त्याग्न सक्नुपर्ने रहेछ ।
* सँसारमै कडा र गार्हो मानिने सेना प्रहरीको जस्तो अत्यन्त कठिन र लामो तालिम पुरा गरेर मात्र नागा बाबा बन्न सकिँदो रहेछ ।
* माछा मासु देखी धेरै खाले खाद्यान्न मा बन्देज रहेछ नागा बाबा हरुलाई ।
* युद्ध कला कौशल हरकुरामा पोख्त हुनुपर्ने रहेछ ।
* यि र यस्ता धेरै कुराहरु, मापदन्डहरु पुरा गरेर सँसारिक माया मोह मनोरन्जन सब कुरा त्यागेर बनेका नागा बाबाहरु मात्र होइन नागा आमा हरु पनि हुँदा रहेछन जो सबै थोक छोडेर धर्मका लागि बान्छेका हुँदा रहेछन ।
यस्ता तपस्वी नागा बाबा हरु र नागा आमाहरुका बिषयमा मैले बोल्ने टिप्पणी गर्ने कुनै हैसियत राख्दिन । तर एउटा मेरो भन्नु के छ भने नागा बाबा आमा हरुले कमसेकम गुप्ताङ्ग हरु सम्म ढाक्ने चाहिँ ब्यबस्था गर्नै पर्छ । खुल्ला सोभनिय हुँदै हुँदैन ।
शिवरात्रीको बेलामा बिशेष चर्चामा आउने नांगा बाबालाइ हेर्नकै लागि भएपनि यूवाहरुको जमात पशुपति तिर जानु आवाश्यक ठान्छ । नांगा बाबासँगै बसेर गाजा तान्नु र अझ भनौ नांगाबाबासँग सेल्फिमा रमाउनु शिवरात्रीको बिशेषता बनेको छ पछिल्लो समय । हरेक शिबरात्रीको बेला हुलका हुल नागा नेपाल भित्रने गरेका छन र शिवरात्री सकिएको भोलिपल्टदेखि नै विदा हुन थाल्छन ती बाबाहरु । हरेक शिबरात्रीलाइ बिशेष बनाउन नेपाल आउने गरेका ती नाँगा बाबा को हुन , कसरी उनीहरुको उत्पती भयो ,शिबरात्री सकिएपछि उनीहरु कहाँ जान्छन सबैको कौतुहलताको विषय हो । नांगा बाबाको बारेमा केही रहस्योद्घाटन गर्ने प्रयास गरिएको छ । नांगा शब्द धेरै पुरानो हो । भारतमा नाग वंश र नागा जातिको इतिहास पनि पूरानो छ । भारतको उत्तर पूर्वी क्षेत्रमा नागवंशी र नागजाती र दसनामी सम्प्रदायका मानिसहरु बस्छन । भारतको नाथ सम्प्रदाय पनि दशनामी सम्प्रदायसँग सम्बन्धित छ । शैव पथबाट धेरैजसो सन्यासी तथा साधुको उत्पत्ति भएको मानिन्छ । नागा शब्दको उत्पत्तिका बारेमा केही विद्धानको यस्तो मान्यता छ की नांगा शब्द संस्कृत शब्दबाट आएको हो जसको अर्थ “पहाड” हुन्छ र यहाँ बस्ने मान्छेलाई “पहाडी” अर्थात “नागा” भनिन्छ । कच्छारी भाषामा नांगा भनेको “एक बहादुर लडाकु व्यक्ति” हो । नागाको अर्थ नग्न रहनेलाइ पनि बुझिन्छ । उत्तर पूर्वी भारतमा बस्ने मान्छेलाइ पनि नागा भनिन्छ । नागाको इतिहास सनातनका आदिगुरु शंकाराचार्यसँग सम्बन्धित छ । ८ औ शताब्दीको मध्यतिर उनको जन्म भएको थियो त्यतिबेला भारतीय जनताको स्थिती खराब थियो । आक्रमणकारीहरु सलबलाएका थिए । आर्थिक सामाजिक स्थिती खराब थियो । यस चूनौतीलाइ अध्यत्मिक शक्तिले मात्र सामना गर्न पर्याप्त थिएन । त्यसकारण उनले देशको चार कुनामा धार्मिक पीठ खडा गरेर यूवा साधुलाइ व्यायाम गरी शक्तिशाली बनाए भने हतियार चलाउन पनि माहिर बनाए । ती पीठहरु साधुको अभ्यास गर्ने केन्द्र बने । कालान्तरमा कैयौ यस्ता अभ्यास गर्ने अखडा बने । धार्मिक स्थल ,श्रद्धालु भक्तजनको रक्षामा आँच आउन थाल्यो भने ती साधुको प्रयोग गर्नु भनेर शंकराचार्यले अखडामा सुझाव दिए । केयौपटक विदेशी राजा महाराजाको अक्रमणमा नांगा बाबाहरुको सहयोग लिइएको थियो । धार्मिक स्थल गोकुलको रक्षा पनि नागा बाबाले नै गरेको भनिएको छ । उसो भए नागा बाबा बन्न के गर्नुपर्ला त भन्ने लाग्न सक्छ कैयौलाई । नागा बाबा बन्न सहज छैन । कठिन प्रक्रिया पार गर्न कैयौ बर्ष लाग्न सक्छ । कोही नागा बन्न चाहन्छ र धार्मिक अखडामा जान्छन भने उसको पारिवारिक पृष्ठभुमि बुझिन्छ र किन उ नागा बाबा बन्दैछ भन्ने पनि जानकारी लिइन्छ । यदि उसको उत्तर अखडालाइ चित्त बुझेको बखतमा मात्र उसले नागा साधुको लागि अखडामा प्रवेश पाउँछ । यसमा ६ महिना देखि लिएर १२ बर्षसम्म पनि लाग्न सक्छ । सँसारिक माया मोहबाट निक्लन सक्ने मानिस मात्र नाँगा बाबा बन्न सक्छ ।
दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले-महाकुंभ के कई अलग-अलग रंगों में एक रंग हैं- नागा साधु जो हमेशा की तरह श्रद्धालुओं के कौतूहल का केंद्र बने हुए हैं। इनका जीवन आम लोगों के लिए एक रहस्य की तरह होता है। नागा साधु बनाने की प्रक्रिया महाकुंभ के दौरान ही होती है।
नागा साधु बनने के लिए इतनी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद बिना संन्यास और दृढ़ निश्चय के कोई व्यक्ति इस पर पार ही नहीं पा सकता। सनातन परंपरा की रक्षा और उसे आगे बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न संन्यासी अखाड़ों में हर महाकुंभ के दौरान नागा साधु बनाए जाते हैं। माया मोह त्यागकर वैराग्य धारण की इच्छा लिए विभिन्न अखाड़ों की शरण में आने वाले व्यक्तियों को परम्परानुसार आजकल प्रयाग महाकुंभ में नागा साधु बनाया जा रहा है।
दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले-महाकुंभ के कई अलग-अलग रंगों में एक रंग हैं- नागा साधु जो हमेशा की तरह श्रद्धालुओं के कौतूहल का केंद्र बने हुए हैं। इनका जीवन आम लोगों के लिए एक रहस्य की तरह होता है।
सभी तेरह अखाड़ों में जूना अखाड़ा सबसे बड़ा अखाड़ा भी माना जाता है। जूना अखाड़े के महंत नारायण गिरि महाराज के मुताबिक नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है।
नागा को आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है। जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता।
अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है। नागा बनने आए व्यक्ति की पूरी पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है तो उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है।
प्रवेश की अनुमति के बाद पहले तीन साल गुरुओं की सेवा करने के साथ धर्म कर्म और अखाड़ों के नियमों को समझना होता है। इसी अवधि में ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर ले कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है तो फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है। उन्होंने कहा कि अगली प्रक्रिया कुंभ मेले के दौरान शुरू होती है। जब ब्रह्मचारी से उसे महापुरुष बनाया जाता है।
इस दौरान उनका मुंडन कराने के साथ उसे 108 बार गंगा में डुबकी लगवाई जाती है।
उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। महापुरुष के बाद उसे अवधूत बनाया जाता है। अखाड़ों के आचार्य द्वारा अवधूत का जनेऊ संस्कार कराने के साथ संन्यासी जीवन की शपथ दिलाई जाती हैं। इस दौरान उसके परिवार के साथ उसका भी पिंडदान कराया जाता है। इसके पश्चात दंडी संस्कार कराया जाता है और रातभर उसे ओम नम: शिवाय का जाप करना होता है।
जूना अखाड़े के एक और महंत नरेंद्र महाराज कहते हैं कि जाप के बाद भोर में अखाड़े के महामंडलेश्वर उससे विजया हवन कराते हैं। उसके पश्चात सभी को फिर से गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। स्नान के बाद अखाड़े के ध्वज के नीचे उससे दंडी त्याग कराया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है।
चूंकि नागा साधु की प्रक्रिया प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ के दौरान ही होती है।
प्रयाग के महाकुंभ में दीक्षा लेने वालों को नागा, उज्जैन में दीक्षा लेने वालों को खूनी नागा कहा जाता है।
हरिद्वार में दीक्षा लेने वालों को बर्फानी व नासिक वालों को खिचड़िया नागा के नाम से जाना जाता है। इन्हें अलग-अलग नाम से केवल इसलिए जाना जाता है, जिससे उनकी यह पहचान हो सके कि किसने कहां दीक्षा ली है।
नागा साधुओं की अद्भुत दुनिया के दर्शन
कुंभ दुनिया का सबसे बड़ा मेला माना जाता है. भारत में
चार अलग अलग जगहों पर हर 12 साल में होने वाले कुंभ में इस बार ढाई लाख से
ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया. शिव के भक्त नागा साधु मेले का एक अभिन्न
हिस्सा माने जाते हैं.
टिम बाबा का संबंध तो इंग्लैंड से है लेकिन अब वह नागा साधु हैं
हरिद्वार में चल रहे कुंभ के मेले में अपनी जटाओं को चेहरे के सामने से
हटाकर गुरु दत्तात्रेय विजयते अपनी चिलम में एक जोरदार दम लगाते हैं. और
फिर शंख फूंकते हैं. राख में लिपटे विजयते एक नागा साधु हैं जो केवल कुंभ
के दौरान ही सार्वजनिक तौर पर दिखाई देते हैं. नागा साधुओं के बाल जटाजूट
होते हैं. वे गांजे का सेवन करते हैं और सन्यास में जीवन व्यतीत करते हैं.
प्रार्थना, तपस्या और योग ही उनका जीवन है.
गुरु दत्तात्रेय विजयते का कहना है कि गांजा उन्हें ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है. वे जूना अखाड़े के सदस्य हैं जो नागा
नागा साधुओं ने कभी भी अपने आध्यात्मिक विश्वासों और रीति रिवाज़ों पर समझौता नहीं किया है और इनमें सदियों से कोई बदलाव भी नहीं आया है. नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं जो उनके लिए ठंड से निपटने में मददगार साबित होते हैं. वे अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं. नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं. त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं.
कई नागा साधु अपने परिवारों को बचपन में ही छोड़ देते हैं. वे सारी सांसारिक खुशियों को त्यागकर लोगों और मीडिया की नज़र से दूर रहते हैं. लोगों के बीच नाग साधु काफी हिंसक माने जाते हैं जिससे आम जनता भी उनसे दूर रहना पसंद करती है.
नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने के लिए ज़रूरी जानकारी हासिल करने में छह साल लगते हैं. इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते. कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूं ही रहते हैं.
भारत में साधुओं के जीवन अलग अलग तरह के होते हैं. कई साधु शहरों के बीचोंबीच आश्रमों और मंदिरों में रहते हैं जबकि कई गांवों के बाहर झोपड़ियों में या फिर ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं. भारत में तकनीकी प्रगति के बाद भी नाग साधु अपने तौर तरीकों से खुश हैं.
रिपोर्टः मुरली कृष्णन/ एम गोपालकृष्णन, संपादनः ए कुमार / www.dw.com
नागा साधु हिन्दू धर्मावलम्बी साधु
हैं जो कि नग्न रहने तथा युद्ध कला में माहिर होने के लिये प्रसिद्ध हैं।
ये विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं जिनकी परम्परा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा
की गयी थी।
नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं जो उनके लिए ठंड से निपटने में मददगार साबित होते हैं। वे अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं। त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं।
ये साधु प्रायः कुम्भ में दिखायी देते हैं। नागा साधुओं को लेकर कुंभ
मेले में बड़ी जिज्ञासा और कौतुहल रहता है, खासकर विदेशी पर्यटकों में। कोई
कपड़ा ना पहनने के कारण शिव भक्त नागा साधु दिगंबर भी कहलाते हैं, अर्थात
आकाश ही जिनका वस्त्र हो। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे
ये साधु कुम्भ मेले में सिर्फ शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के
सामने आते हैं। आमतौर पर मीडिया से ये दूरी ही बनाए रहते हैं।
अधिसंख्य नागा साधु पुरुष ही होते हैं, कुछ महिलायें भी नागा साधु हैं पर वे सार्वजनिक रूप से सामान्यतः नग्न नहीं रहती अपितु एक गेरुवा वस्त्र लपेटे रहती हैं।[1]
आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें ४० हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।
१. श्री निरंजनी अखाड़ा:- यह अखाड़ा ८२६ ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकस्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
२. श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा ११४५ में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।आजकल इनके पीठाधीश्वर स्वामी अवधेस आनंद गिरी महाराज है
३. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा ६७१ ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि १२६० में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में २२ हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।
४. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा ५६९ ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।
५. श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा ६४६ में स्थापित हुआ और १६०३ में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।
6. श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा ८५५ ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।
७. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना ११३६ में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।
८. श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी ८६६ में अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।
९. श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी १५९५ में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। १८४८ तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता थाए परंतु १८४८ में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। १९३२ से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।
१०. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:- यह अखाड़ा १९१० में स्थापित हुआ। इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।
११. श्री उदासीन नया अखाड़ा:- यह अखाड़ा १७१० में स्थापित हुआ। इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।
१२. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:- यह अखाड़ा १७८४ में स्थापित हुआ। १७८४ में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।
१३. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना १७२० में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती थी। ऐसा भी माना जाता है कि प्राचीन काल में लोमश नाम के ऋषि थे जिनकी आयू अखंड है कहते है जब एक हजार ब्रह्मा समाप्त होते है तो उनके शरीर का एक रोम गिरता है। आचार्य लोमश ऋषि के ने भगवान शंकर के कहने पर गुरू परंपरा पर तंत्र शास्त्र पर आधारित सबसे पहले आगम अखाडे की स्थापना की। जो सबसे प्राचीन है विश्व में जिसका मुख्ययालय वर्त्तमान मे हिमालय मे कही है। आगम अखाडे के साधू बहुत ही रहस्यमयी होते है,पूजा ध्यान करते हुऐ वो भूमि का त्याग कर अधर मे होते है
गुरु दत्तात्रेय विजयते का कहना है कि गांजा उन्हें ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है. वे जूना अखाड़े के सदस्य हैं जो नागा
स्नान की तैयारी करते नागा साधु
साधुओं के 13 पंथों में सबसे बड़ा पंथ है. नागा साधुओं का कुंभ मेले में
हिस्सा लेने का एक और मकसद है. वह है पंथ में नए लोगों को भर्ती करना.
विजयते कहते हैं, "नागा साधु बनने में 12 साल लगते हैं जिसके लिए कठोर
तपस्या करनी पड़ती है. हम दत्तात्रेय संत हैं और हम यात्रा करते हैं. हम
गांजा पीते हैं ताकि हम खुद को आध्यात्मिक रूप से आत्मिक और धार्मिक
शक्तियों में बदल सकें. हम गर्मियां हिमालय में बिताते हैं. हमें गांजे के
लिए पैसों की ज़रूरत है क्योंकि हमें तपस्या करनी होती है."नागा साधुओं ने कभी भी अपने आध्यात्मिक विश्वासों और रीति रिवाज़ों पर समझौता नहीं किया है और इनमें सदियों से कोई बदलाव भी नहीं आया है. नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं जो उनके लिए ठंड से निपटने में मददगार साबित होते हैं. वे अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं. नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं. त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं.
कुंभ में लगता है लोगों का तांता
टिम
बाबा इंग्लैंड से हैं और जूना अखाड़े के सदस्य हैं. उनका असली नाम मैथ्यू
राउल बैस है. 18 साल पहले वे भारत आए थे जहां उन्हें 'भगवान' मिले. उन्हें
अहसास हुआ कि भगवान एक हैं और सारे धर्म एक ही भगवान की ओर जाते हैं. उनके
मुताबिक कुंभ एक ऐसी जगह है जहां कई लोग भगवान के लिए आते हैं. कई नागा साधु अपने परिवारों को बचपन में ही छोड़ देते हैं. वे सारी सांसारिक खुशियों को त्यागकर लोगों और मीडिया की नज़र से दूर रहते हैं. लोगों के बीच नाग साधु काफी हिंसक माने जाते हैं जिससे आम जनता भी उनसे दूर रहना पसंद करती है.
नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने के लिए ज़रूरी जानकारी हासिल करने में छह साल लगते हैं. इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते. कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूं ही रहते हैं.
गांजे के बिना नहीं चलता नागा साधुओं का काम
निर्मल
बाबा पिछले पांच वर्षों से पंथ के सदस्य हैं. वह बचपन से नागा साधु बनने
के लिए बलिदान कर रहे हैं. वह कहते हैं कि गुरू की सेवा के बाद ही वह आज
साधु बन पाए हैं. उनके मुताबिक, "मेरी आत्मा साफ है जो मेरे लिए बहुत
ज़रूरी है."भारत में साधुओं के जीवन अलग अलग तरह के होते हैं. कई साधु शहरों के बीचोंबीच आश्रमों और मंदिरों में रहते हैं जबकि कई गांवों के बाहर झोपड़ियों में या फिर ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं. भारत में तकनीकी प्रगति के बाद भी नाग साधु अपने तौर तरीकों से खुश हैं.
रिपोर्टः मुरली कृष्णन/ एम गोपालकृष्णन, संपादनः ए कुमार / www.dw.com
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नागा साधु
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अनुक्रम
जीवन शैली
इनके आश्रम हरिद्वार और दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों में हैं जहां ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं। इनके गुस्से के बारे में प्रचलित किस्से कहानियां भी भीड़ को इनसे दूर रखती हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि यह शायद ही किसी को नुकसान पहुंचाते हों। हां, लेकिन अगर बिना कारण अगर कोई इन्हें उकसाए या तंग करे तो इनका क्रोध भयानक हो उठता है। कहा जाता है कि भले ही दुनिया अपना रूप बदलती रहे लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे।नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं जो उनके लिए ठंड से निपटने में मददगार साबित होते हैं। वे अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं। त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं।
अधिसंख्य नागा साधु पुरुष ही होते हैं, कुछ महिलायें भी नागा साधु हैं पर वे सार्वजनिक रूप से सामान्यतः नग्न नहीं रहती अपितु एक गेरुवा वस्त्र लपेटे रहती हैं।[1]
इतिहास
भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी यहाँ आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें ४० हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।
वर्तमान स्थिति
भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। इस समय १३ प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-१. श्री निरंजनी अखाड़ा:- यह अखाड़ा ८२६ ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकस्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
२. श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा ११४५ में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।आजकल इनके पीठाधीश्वर स्वामी अवधेस आनंद गिरी महाराज है
३. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा ६७१ ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि १२६० में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में २२ हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।
४. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा ५६९ ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।
५. श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा ६४६ में स्थापित हुआ और १६०३ में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।
6. श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा ८५५ ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।
७. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना ११३६ में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।
८. श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी ८६६ में अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।
९. श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी १५९५ में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। १८४८ तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता थाए परंतु १८४८ में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। १९३२ से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।
१०. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:- यह अखाड़ा १९१० में स्थापित हुआ। इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।
११. श्री उदासीन नया अखाड़ा:- यह अखाड़ा १७१० में स्थापित हुआ। इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।
१२. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:- यह अखाड़ा १७८४ में स्थापित हुआ। १७८४ में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।
१३. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना १७२० में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती थी। ऐसा भी माना जाता है कि प्राचीन काल में लोमश नाम के ऋषि थे जिनकी आयू अखंड है कहते है जब एक हजार ब्रह्मा समाप्त होते है तो उनके शरीर का एक रोम गिरता है। आचार्य लोमश ऋषि के ने भगवान शंकर के कहने पर गुरू परंपरा पर तंत्र शास्त्र पर आधारित सबसे पहले आगम अखाडे की स्थापना की। जो सबसे प्राचीन है विश्व में जिसका मुख्ययालय वर्त्तमान मे हिमालय मे कही है। आगम अखाडे के साधू बहुत ही रहस्यमयी होते है,पूजा ध्यान करते हुऐ वो भूमि का त्याग कर अधर मे होते है
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